भारत देश में हिन्दू धर्म में सबसे प्रतिष्ठित व्रत भगवान सत्यनारायण का व्रत और कथा है। हिन्दू धर्म के विद्वानों या हमारे पूर्वजों ने बताया है कि स्कंद पुराण के रेवाखंड में भगवान सत्यनारायण की कथा का जिक्र किया है। इसके मूल पाठ में पाठांतर से करीब 170 श्लोक संस्कृत भाषा मे उपलब्ध है।
भगवान सत्यनारायण की कथा के दो प्रमुख विषय है। सबसे पहला विषय है संकल्प को भूलना और दूसरा विषय है प्रसाद का अपमान करना।इस व्रत की कथा के छोटे छोटे अध्यायों में बताया गया है कि जो भी व्यक्ति अपने जीवन में सत्य का पालन नहीं करता है उस इंसान को किस प्रकार की परेशानियों का सामान करना होता है।
इसलिए कहा गया है कि हर इंसान को अपने जीवन में भगवान सत्य व्रत का पालन पूरी निष्ठा और सुदृढ़ता के साथ करना चाहिए।जो भी इंसान इस व्रत को पालन के साथ नहीं करता है उस इंसान से भगवान नाराज़ हो जाते है। साथ ही भगवान सत्य नारायण उस इंसान को अपितु दंड स्वरूप संपत्ति और बंधु बांधवों के सुख से दूर कर देते है।
यह कथा धरती में सच्चाई की प्रतिष्ठा का लोकप्रिय और सर्वमान्य धार्मिक साहित्य हैं। तो चलिए आज के लेख मे Satyanarayan Vrat Katha के बारे में जानते है।
Satyanarayan Vrat Katha and Puja Vidhi: सत्यनारायण कथा का महत्व एवं पूजन
कौन है सत्यनारायण भगवान
सत्यनारायण भगवान विष्णु के सत्य गुण का रूप है | नारायण यानि विष्णु को ही इस ब्रहमांड का सत्य माना गया है, उनके अलावा सब माया है | जो इंसान अपने जीवन को सत्य से जीता है। उस इंसान पर भगवान सत्यनारायण की कृपा और दया दृष्टि बनी रहती है। जो इंसान अपने जीवन में सत्य के मार्ग पर नहीं चलते या फिर झूठ बोलते है। उन इंसानों पर भगवान की कृपा नहीं रहती है। उस इंसान को अपने जीवन में कई प्रकार के कठिनाइयों का सामान करना पड़ता है।
भगवान सत्यनारायण की पूजन विधि
- सबसे पहले भगवान सत्यनारायण स्नान के लिए तांबे का पात्र, तांबे का लोटा, जल का कलश, दूध, देव मूर्ति को अर्पित किए जाने वाले वस्त्र व आभूषण ले ।
- पूजा के लिए चावल, कुमकुम, दीपक, तेल, रुई, धूपबत्ती, फूल, अष्टगंध, तुलसीदल, तिल, जनेऊ ले।
- प्रसाद के लिए गेंहू के आटे की पंजीरी, फल, दूध, मिठाई, नारियल, पंचामृत, सूखे मेवे, शक्कर, पान में से जो भी हो सवाया लें।
- भगवान सत्यनारायण की पूजा अर्चना महीने में एक बार जरूर करे, यह पूजा आप लोग पूर्णिमा या संक्रांति के दिन कर सकते है।
- भगवान सत्यनारायण की पूजा करना हमारे जीवन में सत्य के महत्व को बतलाती है।
- पूजन के दौरान आप स्नान करके कोरे और धुले एवं साफ़ सुथरे कपड़े पहने और माथे पर तिलक लगाकर भगवान गणेश जी का नाम लेकर भगवान सत्यनारायण की पूजा और कथा शुरू करे।
श्री सत्यनारायण भगवान की कथा
पहला अध्याय
एक समय की बात है। नैषिरण्य तीर्थ में शौनिकादि, अठ्ठासी हजार ऋषियों ने श्री सूतजी से पूछा कि हे प्रभु! इस कलियुग में वेद विद्या रहित मनुष्यों को प्रभु भक्ति किस प्रकार मिल सकती है? तथा उन लोगों का उद्धार कैसे होगा? हे मुनि श्रेष्ठ ! कोई ऎसा तप बताइए जिससे थोड़े समय में ही पुण्य और मनवांछित फल प्राप्त हो जाए। इस प्रकार की कथा सुनने की हम इच्छा रखते हैं। सर्व शास्त्र में ज्ञाता सूत जी बोले – हे वैष्णवों में पूज्य ! आप सभी लोगों ने इंसानो के हित की बात पूछी है। इसलिए मैं एक ऎसे श्रेष्ठ व्रत को आप लोगों को बताने जा रहा हू जिसे लक्ष्मीपति ने मुनिश्रेष्ठ नारद जी से कहा था। आप सभी लोग ध्यान से सुनिए –
एक समय की बात है कि योगीराज नारद जी दूसरों के हित की इच्छा लिए अनेकों लोक में घूमते हुए मृत्यु लोक जा पहुंचे। मृत्यु लोक पर इन्होंने अनेक योनियों में जन्मे सभी मनुष्यों को अपने कर्मों द्वारा अनेकों दुखों से पीड़ित देखकर नारद जी सोचने लगे कि ऐसा क्या किया जाये जिसके करने से निश्चित रुप से इंसान के दुखों का अंत हो जाए। इसी बात पर विचार करते हुए नारद जी विष्णु लोक जा पहुंचे। वहाँ पर वह भगवान नारायण की स्तुति करने लगे। भगवान नारायण हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म और गले में वरमाला पहने हुए थे।
नारद जी प्रार्थना करते बोले – हे भगवान! आप अत्यंत शक्ति से संपन्न हैं। मन तथा वाणी भी आपको नहीं पा सकती हैं। आपका आदि, मध्य तथा अंत नहीं है। निर्गुण स्वरूप सृष्टि के सभी भक्तों के दुख को दूर करने वाले है। ऐसे भगवान को मेरा नमस्कार है। नारद जी की स्तुति सुनकर भगवान विष्णु बोले – हे मुनिश्रेष्ठ! आपके मन में क्या बात है? आप किस काम के लिए यह पधारे हैं? उस बात को नि:संकोच कह सकते है। नारद जी ने बोला कि हे भगवन मृत्युलोक में अनेक योनियों में जन्मे मनुष्य अपने कर्मों के द्वारा प्राप्त दुख से दुखी हो रहे हैं। हे नाथ! आप मुझ पर दया रखते हैं। तो आप ही बताइए कि वो सब मनुष्य थोड़े ही प्रयास से अपने दुखों से कैसे छुटकारा पा सकते है।
भगवान नारायण बोले – हे नारद! मनुष्य की भलाई के लिए आप ने बहुत ही अच्छी बात कही है। जिसके करने से मनुष्य अपने मोह से छुटकारा पा सकता है। वह बात मैं आप को बताता हूँ। स्वर्ग लोक व मृत्यु-लोक दोनों लोक में एक उत्तम व्रत है जो पुण्य़ दे सकता है। श्रीसत्यनारायण भगवान का व्रत अच्छी तरह से पूरे विधि विधानपूर्वक करने से मनुष्य तुरंत ही सुख पा सकता और उसको मरने पर मोक्ष प्राप्त हो जाएगा।
भगवान विष्णु की बात को सुनकर नारद जी कहते है कि इस व्रत का फल क्या है? और इस व्रत का क्या विधान है? इस व्रत को किसने किया था? इस व्रत को किस दिन करना चाहिए? भगवान विष्णु नारद जी की इन सब बातों को सुनकर उनसे बोलते है कि दुख व शोक को दूर करने वाला यह व्रत सभी स्थानों पर विजय दिलाने वाला है। इंसान को भक्ति और श्रद्धा भाव के साथ भगवान श्रीसत्यनारायण जी की पूजा धर्म परायण होकर ब्राह्मणों व बंधुओं के साथ शाम को करना चाहिए। भक्ति भाव से ही नैवेद्य, केले का फल, घी, दूध और गेहूँ का आटा सवाया लें। गेहूँ के जगह पर साठी का आटा, शक्कर तथा गुड़ लेकर व सभी भक्षण योग्य पदार्थो को मिलाकर इन सब का भगवान सत्यनारायण को भोग लगाना चाहिए।
ब्राह्मणों के साथ साथ बंधु बाँधवों को भी भोजन करना चाहिए। उसके बाद स्वयं भोजन करें। इस तरह से भगवान सत्यनारायण भगवान का यह व्रत करने से मनुष्य की सारी इच्छाएँ पूरी होती हैं। इस कलि काल अर्थात कलियुग में मृत्युलोक में मोक्ष का यही एक सरल उपाय बताया गया है।
।। इति श्री सत्यनारायण व्रत कथा का प्रथम अध्याय संपूर्ण।।
दूसरा अध्याय
सूत जी बोले – हे ऋषियों ! जिन लोगों ने पहले के समय में इस व्रत को किया था उनके इतिहास को बताता हूँ। ध्यान पूर्वक से सुनो! सुंदर काशीपुरी नगर में एक निर्धन ब्राह्मण रहा करता था। वह ब्राह्मण भूख प्यास से परेशान धरती पर घूमता रहता था। ब्राह्मणों से प्रेम करने वाले भगवान ने एक दिन ब्राह्मण का रूप धारण कर उसके पास जा के उससे पूछते है। हे विप्र! नित्य दुखी होकर तुम पृथ्वी पर धूम रहे हो? दीन ब्राह्मण बोला – मैं निर्धन ब्राह्मण हूँ। भिक्षा के लिए धरती पर घूमता हूँ। हे भगवान ! यदि आप इसका कोई उपाय जानते हो तो आप मुझे बताइए।
वृद्ध ब्राह्मण के रूप में भगवान सत्यनारायण बनकर आए उस निर्धन ब्राह्मण को व्रत का सारा विधि विधान बताकर अन्तर्धान हो गए। वह ब्राह्मण मन ही मन सोचने लगा कि जिस व्रत को वृद्ध ब्राह्मण करने को कह रहे है। मैं उस व्रत को ज़रूर करूँगा। यह निश्चय करने के लिए उस बाद ब्राह्मण को रात में नींद नहीं आई। वह ब्राह्मण सुबह सुबह उठकर भगवान सत्यनारायण भगवान का व्रत और कथा का निश्चय करके भिक्षा के लिए चले गए। उस दिन निर्धन ब्राह्मण को भिक्षा में बहुत धन मिला। जिससे उन धन से उस ब्राह्मण ने बंधु बाँधवों के साथ मिलकर भगवान श्री सत्यनारायण के व्रत और कथा संपन्न किया।
भगवान सत्यनारायण का व्रत संपन्न करने के बाद वह निर्धन ब्राह्मण सभी दुखों से मुक्त हो गया और अनेक प्रकार की संपत्तियों से युक्त हो गया। उसी समय से ब्राह्मण हर माह भगवान सत्यनारायण का व्रत करने लगे। इस तरह से भगवान सत्यनारायण के व्रत और कथा जो भी इंसान करता है। वह इंसान सभी प्रकार के पापों से छूट पाकर मोक्ष को प्राप्त करता है। जो भी इंसान इस व्रत को करता वह भी सभी दुखों से मुक्त हो जाता है।
सूत जी बोले कि इस तरह से नारद जी से नारायण जी का कहा हुआ श्री सत्यनारायण व्रत को मैने तुमसे कहा. हे विप्रो ! मैं अब और क्या कहूँ? ऋषि बोले – हे मुनिवर ! संसार में उस विप्र से सुनकर और किस-किस ने इस व्रत को किया, हम सब इस बात को सुनना चाहते हैं। इसके लिए हमारे मन में श्रद्धा का भाव है।
सूत जी बोले – हे मुनियों! जिन जिन लोगों ने इस व्रत को किया है। वह सब सुनो ! एक समय वही विप्र धन व ऎश्वर्य के अनुसार अपने बंधु बाँधवों के साथ इस व्रत को करने के तैयार हुआ। उसी समय एक एक लकड़ी बेचने वाला बूढ़ा आदमी आया और लकड़ियाँ को बाहर रखकर वह आदमी ब्राह्मण के घर में अंदर आ गया। प्यास से दुखी वह लकड़हारा उन लोगों को व्रत करते हुए देख और बड़े विन्रम से उनको नमस्कार करते हुए। उनसे पूछने लगा कि आप सभी लोग यह क्या कर रहे हैं। तथा इसे करने से आप लोगों को क्या फल मिलेगा? कृपया करके मुझे भी बताएँ। उस ब्राह्मण ने कहा कि सभी मनोकामनाओं को पूरा करने वाला यह भगवान सत्यनारायण का व्रत है। भगवान सत्यनारायण की ही कृपा से मेरे घर में धन धान्य आदि इन सभी सुखों की वृद्धि हुई है।
विप्र से सत्यनारायण व्रत के बारे में जानकर लकड़हारा बहुत खुश हुआ। वह लकड़हारा चरणामृत व प्रसाद को लेने के बाद अपने घर को चला गया। उस लकड़हारे ने अपने मन में संकल्प लिया कि आज लकड़ी बेचने से जो भी धन मिलेगा उसी धन से भगवान श्री सत्यनारायण उत्तम व्रत करूँगा। मन में इस विचार को लेकर वह बूढ़ा आदमी अपने सिर पर लकड़ियाँ रखकर नगर में बेचने चला गया। जहाँ पर ज्यादा धनी लोग रहते थे, उस नगर में उस लकड़हारा को अपने लकड़ियों का दाम पहले से चार गुना ज्यादा मिलने लगा।
बूढ़ा लकड़हारा प्रसन्नता के साथ दाम लेकर केले, शक्कर, घी, दूध, दही और गेहूँ का आटा ले और भगवान सत्यनारायण के व्रत की अन्य सामग्रियाँ को लेकर अपने घर चला गया। वहाँ पर उसने अपने बंधु बाँधवों को बुलाकर पूरे विधि विधान से भगवान सत्यनारायण का पूजन और व्रत किया। इस व्रत के प्रभाव से वह बूढ़ा लकड़हारा धन और पुत्र आदि से युक्त होकर संसार के समस्त सुख को जीने लगा और बाद में वह लकड़हारा अंत काल में बैकुंठ धाम को चला गया।
।।इति श्री सत्यनारायण व्रत कथा का द्वितीय अध्याय संपूर्ण।।
तीसरा अध्याय
सूतजी बोले – हे श्रेष्ठ मुनियों, अब आगे की कथा सुनता हूँ। पहले समय में उल्कामुख नाम का एक बुद्धिमान राजा था। वह सत्यवक्ता और जितेन्द्रिय था। वह राजा प्रतिदिन देव स्थानों पर जाया करता था और निर्धनों को धन देकर उनके कष्ट दूर करता था। उस राजा की पत्नी कमल के समान मुख वाली और सती साध्वी थी। भद्रशीला नदी के तट पर राजा और रानी ने भगवान श्रीसत्यनारायण का व्रत किया।
उसी समय साधु नाम का एक वैश्य आया। साधु के पास व्यापार करने के लिए बहुत सा धन था। राजा को व्रत करते देखकर वह व्यापारी विनय के साथ पूछने लगा – हे राजन ! भक्ति भाव से पूर्ण होकर आप यह क्या कर रहे हैं? मैं सुनने की इच्छा रखता हूँ तो आप मुझको बताएँ।
राजा बोला – हे साधु! अपने बंधु बाँधवों के साथ पुत्रादि प्राप्ति के लिए एक महाशक्तिमान भगवान श्रीसत्यनारायण के व्रत और पूजा कर रहा हूँ। राजा की बात को सुनकर वह साधु बड़े ही आदर से बोला – हे राजन! मुझे इस व्रत का सारा विधान बताइए। आपके कथनानुसार मैं भी इस व्रत को करुँगा। मेरी कोई भी संतान नहीं है। इस व्रत को करने से निश्चित रुप से मुझे संतान की प्राप्ति होगी। उस साधु ने राजा से उस व्रत का सारा विधान सुना और वह अपने व्यापार से निवृत होकर अपने घर चला गया।
साधु वैश्य ने अपनी पत्नी को संतान देने वाले इस व्रत के बारे में सुनाया और कहा कि जब मेरी संतान होगी तब मैं इस व्रत को करुँगा। साधु ने इस तरह की बात अपनी पत्नी लीलावती को कहा। एक दिन लीलावती पति के साथ आनन्दित हो सांसारिक धर्म में प्रवृत होकर भगवान सत्यनारायण की कृपा से गर्भवती हो गई। दसवें माह में उसके गर्भ से एक सुंदर कन्या ने जन्म लिया। दिनों दिन वह ऎसे बढ़ने लगी जैसे कि शुक्ल पक्ष का चंद्रमा बढ़ता है। माता-पिता ने अपनी कन्या का नाम कलावती रखा।
एक दिन लीलावती ने अपने पति को याद दिलाया कि आपने भगवान सत्यनारायण के जिस व्रत को करने का संकल्प किया था वह समय आ गया है। आप इस व्रत को करिये। साधु बोला कि हे प्रिये! इस व्रत को मैं अपनी पुत्री के विवाह पर करुँगा। इस प्रकार उस साधु ने अपनी पत्नी को आश्वासन देकर वह नगर में चला गया। कलावती पिता के घर में रह वृद्धि को प्राप्त हो गई।
साधु ने एक बार नगर में अपनी कन्या को सखियों के साथ देखा तो उसने तुरंत ही दूत को बुलाया और कहा कि मेरी कन्या के योग्य वर देख कर आओ। साधु की बात सुनकर दूत कंचन नगर में पहुंचा और वहाँ देखभाल कर लड़की के सुयोग्य वाणिक पुत्र को ले आया। सुयोग्य लड़के को देख साधु ने बंधु बाँधवों को बुलाकर अपनी पुत्री का विवाह कर दिया। लेकिन दुर्भाग्य की बात ये है कि साधु ने अभी भी भगवान श्रीसत्यनारायण का व्रत नहीं किया था।
इस पर श्री भगवान क्रोधित हो गए और श्राप दिया कि साधु को अत्यधिक दुख मिले। अपने कार्य में कुशल साधु बनिया जमाई को लेकर समुद्र के पास स्थित होकर रत्नासारपुर नगर में गया। वहाँ जाकर दामाद ससुर दोनों मिलकर चन्द्रकेतु राजा के नगर में व्यापार करने लगे।
एक दिन सत्यनारायण भगवान की माया से एक चोर राजा का धन चुराकर भाग रहा था। उसने राजा के सिपाहियों को अपना पीछा करते देख चुराया हुआ धन वहाँ रख दिया जहाँ साधु अपने जमाई के साथ ठहरा हुआ था। राजा के सिपाहियों ने साधु वैश्य के पास राजा का धन पड़ा देखा तो वह ससुर जमाई दोनों को बाँधकर राजा के पास ले आया।और कहा कि उन दोनों चोरों को हम पकड़ लाएं हैं। आप आगे की कार्यवाही की आज्ञा दें दे।
राजा की आज्ञा से उन दोनों को कठिन कारावास में डाल दिया गया और उनका सारा धन भी उनसे छीन लिया गया। सत्यनारायण भगवान के श्राप से साधु की पत्नी भी बहुत दुखी हुई। घर में जो धन रखा था उसे भी चोर चुरा ले गए।
शारीरिक तथा मानसिक पीड़ा व भूख प्यास से अति दुखी होने के बाद अन्न की चिन्ता में कलावती ब्राह्मण के घर चली गई। वहाँ उसने श्री सत्यनारायण भगवान के व्रत को देखा फिर और कथा सुनी और वह प्रसाद ग्रहण कर रात को घर वापिस आ गई। माता ने कलावती से पूछा कि हे पुत्री अब तक तुम कहाँ थी़? तेरे मन में क्या है?
कलावती ने अपनी माता से कहा – हे माता ! मैंने एक ब्राह्मण के घर में श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत देखा है। कन्या के वचन सुन लीलावती भगवान के पूजन की तैयारी करने लगी। लीलावती ने परिवार व बंधुओं के सहित सत्यनारायण भगवान का पूजन किया और उनसे वर माँगा कि मेरे पति तथा जमाई शीघ्र ही घर आ जाएँ। साथ ही यह भी प्रार्थना की कि हम के सभी अपराध को क्षमा करें। सत्यनारायण भगवान इस व्रत से संतुष्ट हो गए और राजा चन्द्रकेतु को सपने में दर्शन दे कहा कि – हे राजन ! तुम उन दोनो वैश्यों को छोड़ दो और तुमने उनका जो धन लिया है उसे वापिस कर दो। अगर ऎसा नहीं किया तो मैं तुम्हारा धन राज्य व संतान सभी को नष्ट कर दूँगा। राजा को यह सब कहकर वह अन्तर्धान हो गए।
प्रात:काल सभा में राजा ने अपना सपना सुनाया फिर बोले कि बणिक पुत्रों को कैद से मुक्त कर सभा में ले आओ। दोनो ने आते ही राजा को प्रणाम किया। राजा मीठी वाणी में बोला – हे महानुभावों ! भाग्यवश ऎसा कठिन दुख तुम दोनों को मिला है। लेकिन अब तुम दोनों को कोई भय नहीं है। ऎसा कहकर राजा ने उन दोनों को नए वस्त्राभूषण भी पहनाए और जितना धन उनका लिया था उससे दुगुना धन वापिस कर दिया। दोनो वैश्य अपने घर को चल दिए।
।।इति श्रीसत्यनारायण भगवान व्रत कथा का तृतीय अध्याय संपूर्ण।।
चतुर्थ अध्याय
सूतजी बोले – वैश्य ने मंगलाचार कर अपनी यात्रा आरंभ की और अपने नगर की ओर चले गए। उनके थोड़ी दूर जाने पर एक दण्डी वेशधारी श्रीसत्यनारायण भगवान ने उनसे पूछा – हे साधु तेरी नाव में क्या है? अभिवाणी वणिक हंसता हुआ बोला – हे दण्डी ! आप क्यों पूछते हो? क्या धन लेने की इच्छा है? मेरी नाव में तो बेल व पत्ते भरे हुए हैं। वैश्य के कठोर वचन सुन भगवान बोले – तुम्हारा वचन सत्य हो! दण्डी ऎसे वचन कह वहाँ से दूर चले गए। कुछ दूर जाकर समुद्र के किनारे बैठ गए। दण्डी के जाने के बाद साधु वैश्य ने नित्य क्रिया के पश्चात नाव को ऊँची उठते देखकर अचंभा माना और नाव में बेल पत्ते आदि देख वह मूर्छित होकर ज़मीन पर गिर पड़ा।
मूर्छा खुलने पर वह अत्यंत शोक में डूब गया तब उसका दामाद बोला कि आप शोक ना मनाए, यह उस दण्डी का शाप है। इसलिए हमें उनकी शरण में जाना चाहिए तभी हमारी मनोकामना पूरी होगी। दामाद की बात सुनकर वह दण्डी के पास पहुँचा और अत्यंत भक्ति-भाव के साथ उनको नमस्कार कर के बोला – मैंने आपसे जो भी असत्य वचन बोला था उनके लिए मुझे आप क्षमा कर दे।
ऎसा कह कहकर महान शोकातुर हो रोने लगा तब दण्डी भगवान बोले – हे वणिक पुत्र ! मेरी आज्ञा से बार-बार तुम्हें दुख प्राप्त हुआ है। तू मेरी पूजा से विमुख हुआ। साधु बोला – हे भगवान ! आपकी माया से ब्रह्मा आदि देवता भी आपके रूप को नहीं जानते तब मैं अज्ञानी आप के रूप को कैसे जान सकता हूँ। आप प्रसन्न होइए अब मैं सामर्थ्य के अनुसार आपकी पूजा अर्चना करूँगा। मेरी रक्षा करो और पहले के समान मेरी नौका में धन भर दीजिये।
साधु वैश्य के भक्तिपूर्वक बात को सुनकर सत्यनारायण भगवान बहुत प्रसन्न होए और उसकी इच्छानुसार वरदान देकर अन्तर्धान हो गए। ससुर-जमाई जब नाव पर आए तो नाव धन से भरी हुई थी फिर वहीं अपने अन्य साथियों के साथ सत्यनारायण भगवान का पूजन कर अपने नगर को चले गए। जब यह दोनों नगर के नजदीक पहुँचे तो दूत को घर पर खबर करने के लिए भेज दिया। दूत साधु की पत्नी को प्रणाम करके कहता है कि मालिक अपने दामाद सहित नगर के निकट आ गए हैं।
दूत की बात सुन साधु की पत्नी लीलावती ने बड़े हर्ष के साथ सत्यनारायण भगवान का पूजन कर अपनी पुत्री कलावती से कहा कि मैं अपने पति के दर्शन को जाती हूँ। तू कार्य पूर्ण कर शीघ्र आ जाना। माता के ऎसे वचन सुन कलावती जल्दी में प्रसाद छोड़ अपने पति के पास चली गई। प्रसाद की अवज्ञा के कारण श्रीसत्यनारायण भगवान रुष्ट हो गए और नाव सहित उसके पति को पानी में डुबो दिया। कलावती अपने पति को वहाँ पर ना पाकर रोती हुई जमीन पर गिर गई। नौका को डूबा हुआ देखकर व कन्या को रोता देख साधु दुखी होकर बोला कि हे प्रभु ! मुझसे तथा मेरे परिवार से जो भूल हुई है उस भूल को आप क्षमा कर दे।
साधु के दीन वचन सुनकर श्रीसत्यनारायण भगवान प्रसन्न हो गए और आकाशवाणी हुई – हे साधु! तेरी कन्या मेरे प्रसाद को छोड़कर आई है। इसलिए उसका पति अदृश्य हो गया है। यदि वह घर जाकर प्रसाद खाकर लौटती है तो उसको उसका पति अवश्य मिलेगा। ऎसी आकाशवाणी सुन कलावती घर पहुंचकर प्रसाद खाकर अपने पति के दर्शन के लिए आती है। उसके बाद साधु अपने बंधु बाँधवों के सहित श्रीसत्यनारायण भगवान का पूरे विधि विधान से पूजन अर्चना करता है। इस लोक में सभी प्रकार का सुख लेने पर वह साधु अंत में स्वर्ग को चला जाता है।
।।इति श्री सत्यनारायण भगवान व्रत कथा का चतुर्थ अध्याय संपूर्ण ।।
पाँचवां अध्याय
सूतजी बोले – हे ऋषियों ! मैं एक ओर कथा सुनाता हूँ। उस कथा को आप सभी लोग ध्यान पूर्वक सुनियेगा ! प्रजापालन में लीन तुंगध्वज नाम का एक राजा था। उस राजा ने भी भगवान सत्यनारायण का प्रसाद त्याग कर बहुत ही दुख सहन किया। एक बार वह राजा वन में जाकर वन्य पशुओं को मारकर वह बड़ के पेड़ के नीचे आया। वहाँ उसने ग्वालों को भक्ति भाव से अपने बंधुओं सहित सत्यनारायण भगवान का पूजन करते हुए देखा। अभिमान में राजा ने उन्हें देखकर पूजा स्थान में नहीं गया और ना ही उसने भगवान को नमस्कार किया। उन ग्वालों ने राजा को प्रसाद दिया लेकिन राजा ने वह प्रसाद नहीं खाया और प्रसाद वहीं छोड़कर अपने नगर को चला गया।
जब वह नगर में पहुंचे तो उन्होंने वहा पर सबकुछ तहस नहस हुआ पाया तो वह शीघ्र ही समझ गया कि यह सब भगवान ने ही किया है। वह राजा दोबारा से उन ग्वालों के पास जा पहुंचे और पूरे विधि विधान पूर्वक पूजा कर के प्रसाद खाया तभी भगवान श्री सत्यनारायण की कृपा से सब कुछ पहले जैसा हो गया। दीर्घकाल तक सुख भोगने के बाद राजा ने मरणोपरांत स्वर्गलोक को प्रस्थान किया।
जो मनुष्य परम दुर्लभ इस व्रत को करेगा तो भगवान सत्य नारायण की अनु कंपा से उसे धन धान्य की प्राप्ति होगी। निर्धन व्यक्ति धनी हो जाएगा और भय-मुक्त से जीवन को जी पायेगा। संतानहीन मनुष्य को संतान का सुख मिलता है। और सारे मनोरथ पूर्ण होने पर मानव अंतकाल समय में बैकुंठधाम को चला जाता है।
सूतजी बोले – जिन लोगों ने इस व्रत को पहले किया है अब उनके दूसरे जन्म की कथा कहता हूँ। वृद्ध शतानन्द ब्राह्मण ने सुदामा का जन्म लेकर मोक्ष की प्राप्ति की। लकड़हारे ने अगले जन्म में निषाद बनकर मोक्ष प्राप्त किया। उल्कामुख नाम का राजा दशरथ होकर बैकुंठ को गए। साधु नाम के वैश्य ने मोरध्वज बनकर अपने पुत्र को आरे से चीरकर मोक्ष पाया। महाराज तुंगध्वज ने स्वयंभू होकर भगवान में भक्तियुक्त हो कर्म कर मोक्ष पाया।
।।इति श्री सत्यनारायण व्रत कथा का पंचम अध्याय संपूर्ण ।।